गुरुवार, अक्तूबर 30, 2008
लओत्सू और आर्क्क्मिदिज
लओत्सू एक दिन मछली का शिकार करने गया.उसने मछली को आकर्षित करने वाली खाने की वास्तु को डोरी के एक सिरे पर बाँध कर डोरी पानी मैं दल दी और लकड़ी पकड़कर बैठ गया/ मछली तेजी से आई और वास्तु खाकर भाग गयी। अब उसने फिर से वास्तु बंधी और लकड़ी पकड़कर बैठा/अबकी बार उसने लकड़ी को कसकर पकड़ा। मछली फिर से आई .वस्तु खाई और भाग गई.लओत्सू ने फिर से वही तैयारी की और लकड़ी पकड़कर बैठ गया.अब की बार उसने लकड़ी बहुत धीरे से पकड़ी ,मछली आई,वस्तु तो खा गई,लकड़ी भी पानी मैं गिर गयी.लओत्सू ने फिर से तैय्यारी की/अबकी बार उसने लकड़ी को न तो कसकर पकड़ा और न एकदम धीरे पकड़ा /संतुलन,साम्य,सचेत.अब जैसे ही मछलीआई ,लओत्सू शांत बैठा रहा ,मछली वस्तु खाती रही,खाती रही,खाने मैं व्यस्त हो गई ,कांटे को जड़ता,कातरता,,मैं उलझ गई ,लओत्सू ने तुंरत उसे उठा लिया.एक सूत्र लाप्त्सू ने पकड़ लिया.उसने एक दर्शन ,एक विचार.एक अवधारणा कायम कर दी.यदि सफल होना है तो किसी विचार,किसी दर्शन ,को जड़ होकर न पकडो.और न उसे उपेक्षा भावः से देखो.संतुलन मैं रहो.इसी प्रकार आर्कमिडीज ने देखा की वस्तुं पानी के ठीक ऊपर तभी तैरतीं हैं जब उनकी किस्म और आकारका चयन इस प्रकार किया जाय की पानी द्वारा लगाये गए उत्प्लावन बल के बराबर वस्तु का भार हो जाय .वही संतुलन ,साम्य अवस्था.लओत्सू और आर्क्मी.एक ही नतीजे पर पहुंचतें है.एक दर्शनशास्त्र मैं एक भौतिकी मैं .
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2 टिप्पणियां:
आभार, बात समझने में वक्त लगेगा।
Please remove word verification. It is the great hurdle in commenting.
अच्छी सीख-संतुलन आवश्यक है.
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