रविवार, अक्तूबर 12, 2008

जैसी सांगत वैसे रंगत

बात उन दिनों की है जब रतलाम की सज्जन मिल बंद हुई थी ,जैसी इंदौर,उज्जैन अहमदाबाद आदि की बंद हुई थी/मेरे ताल मंजिल वाले फ्लैट की बालकनी मई बैठकर अख़बार पड़ रहा था ,सामने खुली जमीन के मैदान मैं एकपागल या विक्षिप्त आदमी कभी अपने हाथों को ऊपर कभी नीचे कभी बाएं कभी दायें ले जाता/बड़ी देर तक ऐसा करता रहा/ मैंने एक प्लेट मैं दो तिन रोटी ,सब्जी और नमकीन ले जाकर उसे दिया/उसने प्लेट को छुआ तक नही और अपनी विक्षिप्त हरकतें करता रहा /उन दिनों संवेदनशील मजदूर पागल्नुमा हो गए थे /और मजदूर नेता टाइप मस्तीयाँ छान रहे थे /अचानक कहीं आग लग जाने से आग बुझाने वाली गाड़ी सायरन बजाते आई /मेरी पत्नी ने कहा भाई अब खाना खालो मिल का सायरन बज गया है /उसने तत्काल कम बंद किया और हाथ धोये /और पानी माँगा /रोटी का एक टुकडा कुटी को दिया और खाना आरम्भ किया / और खाना खाकर थली सापफ कर चला गया /जैसी सांगत वैसी रंगत

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